रात को दीप की लौ कम नहीं रक्खी जाती
धुंध में रौशनी मद्धम नहीं रक्खी जाती
कैसे दरिया की हिफ़ाज़त तेरे ज़िम्मे ठहराऊँ
तुझ से इक आँख अगर नम नहीं रक्खी जाती
ऐसे कैसे मैं तुझे चाहने लग जाऊँ भला
घर की बुनियाद तो इक दम नहीं रक्खी जाती
तहज़ीब हाफ़ी
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रात को दीप की लौ कम नहीं रक्खी जाती
धुंध में रौशनी मद्धम नहीं रक्खी जाती
कैसे दरिया की हिफ़ाज़त तेरे ज़िम्मे ठहराऊँ
तुझ से इक आँख अगर नम नहीं रक्खी जाती
ऐसे कैसे मैं तुझे चाहने लग जाऊँ भला
घर की बुनियाद तो इक दम नहीं रक्खी जाती
तहज़ीब हाफ़ी
जो ख़ुद उदास हो वो क्या ख़ुशी लुटाएगा
बुझे दिये से दिया किस तरह जलाएगा
कमान ख़ुश है कि तीर उस का कामयाब रहा
मलाल भी है कि अब लौट के न आएगा
वो बंद कमरे के गमले का फूल है यारों
वो मौसमों का भला हाल क्या बताएगा
मैं जानता हूँ तेरे बाद मेरी आँखों में
बहुत दिनों तेरा एहसास झिलमिलाएगा
तुम उस को अपना समझ तो रहे हो 'नाज़' मगर
भरम भरम है किसी रोज़ टूट जाएगा
कृष्ण कुमार नाज़
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ
मैं दुश्मनों में हूँ कि तेरे दोस्तों में हूँ
ऐ यार-ए-ख़ुश-दयार तुझे क्या ख़बर कि मैं
कब से उदासियों के घने जंगलों में हूँ
बदला न मेरे बाद भी मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू
मैं जा चुका हूँ फिर भी तेरी महफ़िलों में हूँ
मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर
ये सोच ले कि मैं भी तेरी ख़्वाहिशों में हूँ
तू हँस रहा है मुझ पे मिरा हाल देख कर
और फिर भी मैं शरीक तेरे क़हक़हों में हूँ
यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे
मैं समझता था मिरे यार समझते हैं मुझे
क्या ख़बर कल यही ताबूत मेरा बन जाए
आप जिस तख़्त का हक़दार समझते हैं मुझे
नेक लोगों में मुझे नेक गिना जाता है
और गुनहगार गुनहगार समझते हैं मुझे
मैं तो ख़ुद बिकने को बाज़ार में आया हुआ हूँ
और दुकाँ-दार ख़रीदार समझते हैं मुझे
मैं बदलते हुए हालात में ढल जाता हूँ
देखने वाले अदाकार समझते हैं मुझे
वो जो उस पार हैं इस पार मुझे जानते हैं
ये जो इस पार हैं उस पार समझते हैं मुझे
मैं तो यूँ चुप हूँ कि अंदर से बहुत ख़ाली हूँ
और ये लोग पुर-असरार समझते हैं मुझे
रौशनी बाँटता हूँ सरहदों के पार भी मैं
हम-वतन इस लिए ग़द्दार समझते हैं मुझे
जुर्म ये है कि इन अंधों में हूँ आँखों वाला
और सज़ा ये है कि सरदार समझते हैं मुझे
शाहिद ज़की
मेरी ज़िंदगी है तू
आफ़तों के दौर में
चैन की घड़ी है तू
मेरी रात का चराग़
मेरी नींद भी है तू
मैं ख़िज़ाँ की शाम हूँ
रुत बहार की है तू
दोस्तों के दरमियाँ
वज्ह-ए-दोस्ती है तू
मेरी सारी उम्र में
एक ही कमी है तू
मैं तो वो नहीं रहा
हाँ मगर वही है तू
नासिर इस दयार में
कितना अजनबी है तू
नासिर काज़मी
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जाएगा हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास...